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इन्द्र॒ श्रेष्ठा॑नि॒ द्रवि॑णानि धेहि॒ चित्तिं॒ दक्ष॑स्य सुभग॒त्वम॒स्मे। पोषं॑ रयी॒णामरि॑ष्टिं त॒नूनां॑ स्वा॒द्मानं॑ वा॒चः सु॑दिन॒त्वमह्ना॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra śreṣṭhāni draviṇāni dhehi cittiṁ dakṣasya subhagatvam asme | poṣaṁ rayīṇām ariṣṭiṁ tanūnāṁ svādmānaṁ vācaḥ sudinatvam ahnām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑। ष्रेष्ठा॑नि। द्रवि॑णानि। धे॒हि॒। चित्ति॑म्। दक्ष॑स्य। सु॒ऽभ॒ग॒त्वम्। अ॒स्मे इति॑। पोष॑म्। र॒यी॒णाम्। अरि॑ष्टिम्। त॒नूना॑म्। स्वा॒द्मान॑म्। वा॒चः। सु॒दि॒न॒ऽत्वम्। अह्ना॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:21» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:27» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सभों के अधिपति के समान वर्त्तमान (अस्मे) हम लोगों के लिये (दक्षस्य) बल की (चित्तिम्) उस प्रकृति को जिससे कि विद्या को इकट्ठा करते हैं और (सुभगत्वम्) अत्युत्तम ऐश्वर्य (पोषम्) पुष्टि तथा (रयीणाम्) धन और (तनूनाम्) शरीरों की (अरिष्टिम्) रक्षा (वाचः) वाणी के बोध (स्वाद्मानम्) स्वादिष्ट भोग (अह्नाम्) दिनों के (सुदिनत्वम्) सुदिनपन और (श्रेष्ठानि) धर्मज्ञ (द्रविणानि) धनों को (धेहि) धारण कीजिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को जैसे परमेश्वर ने समस्त वस्तुओं को उत्पन्न कर सबके लिये हित रूप सिद्ध कराई हैं, वैसे सबके कल्याण के लिये नित्य प्रयत्न करना चाहिये ॥६॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये॥ यह इक्कीसवाँ सूक्त और सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र त्वमीश्वर इवाऽस्मे दक्षस्य चित्तिं सुभगत्वं पोषं रयीणां तनूनामरिष्टिं वाचः स्वाद्मानमह्नां सुदिनत्वं श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) सर्वेश्वर इव वर्त्तमान (श्रेष्ठानि) धर्म्मजानि (द्रविणानि) धनानि (धेहि) (चित्तम्) चिन्वन्ति विद्यां यया ताम् (दक्षस्य) बलस्य (सुभगत्वम्) अत्युत्तमैश्वर्यम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (पोषम्) पुष्टिम् (रयीणाम्) धनानाम् (अरिष्टिम्) अहिंसाम् (तनूनाम्) शरीराणाम् (स्वाद्मानम्) स्वादिष्टं भोगम् (वाचः) वाण्याः बोधम् (सुदिनत्वम्) उत्तमदिनस्य भावम् (अह्नाम्) दिनानाम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिर्यथा परमेश्वरेण सर्वाणि वस्तूनि निर्माय सर्वेभ्यो हितानि साधितानि सन्ति तथा सर्वेषां कल्याणाय नित्यं प्रयतितव्यम् ॥६॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या॥ इत्येकविंशतितमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. परमेश्वराने जशा संपूर्ण वस्तू सर्वांच्या कल्याणासाठी उत्पन्न केलेल्या आहेत तसा सर्वांच्या कल्याणासाठी प्रयत्न केला पाहिजे. ॥ ६ ॥